कुछ अपराध ऐसे होते है जिसका कूसूरवार सिर्फ उस घटना को अंजाम देने वाला ही नहीं बल्कि उसका पूरा परिवार और कभी-कभी तो हमारा समाज भी होता है जो परोक्ष रूप से उस अपराध को करने के लिए मजबूर करता है। कितनी विडम्बना है कि एक स्त्री जो नौ महीने अपने गर्भ में पालने के बाद बेटी को जन्म देती है; उसकी हर छोटी-बड़ी खुशियों का खयाल रखती है; उससे जाने-अनजाने में हुई गलतियों के लिए डाँटती-समझाती है और जिसमें अपना अक्स देखती है उसी के साथ ऐसा निष्ठुर घात कर बैठती है जिसपर यकीन करना कठिन हो जाता है। किशोरावस्था की दहलीज पर पैर रखते ही बेटी से ऐसी कौन सी गलती हो गयी जो एक माँ के लिए भी अक्षम्य थी और जिसकी सजा मौत बन गयी? मेरा मन नहीं मान रहा कि इस तरह के अपराध में एक माँ का हाथ हो सकता है। लेकिन कानून ने फिलहाल उसे अपराधी ठहरा दिया है। ऐसे में कानून की नजर में अगर ऐसे अपराध की सजा मौत है तो भी कम है...। इसने तो माँ की छवि ही कलंकित कर दी। अब आगे से कोई माँ के रिश्ते को वह ऊँचा स्थान कैसे दे पाएगा जिसके आंचल में अपनी संतान के लिए सागर से भी गहरा प्यार और आसमान से भी ऊँचा वात्सल्य होता है।
आरुषी की हत्या के मामले में कानून तो अपना कार्य कर गया; लेकिन एक माँ की ममता इतनी क्रूर कैसे हो गयी? इसके पीछे क्या सामाजिक दबाव एवं झूठी प्रतिष्ठा के लिए मन की बेचैनी है? एक माँ को अपने बच्चे से ज्यादा प्रिय समाज में अपनी इज्जत कैसे हो गयी? क्या परिवार और समाज की गरिमा बेटियों की इज्जत से जुड़ी होती है। इस माँ से मै पूछना चाहती हूँ - क्या आरुषी की जगह उसका बेटा होता और एक नौकरानी के साथ जिस्मानी संबंध बनाते हुए पकड़ा जाता तो उसकी भी सजा माँ की नजर में यही होती जो उसने अपनी बेटी को दी? अगर एक ही भूल बेटियां करती हैं तो बहुत बड़ी भूल बन जाती है और बेटे करें तो मामूली बात कह के रफ़ा-दफ़ा करने की कोशिश हो जाती है। शायद तब दाँव पर बेटा लगा होता है जो बेटी से अधिक कीमती है।
बेटी और सामाजिक इज्जत का आपस में क्या ऐसा संबंध है? अगर है तो मत जनो बेटी को... गर्भ में मार डालने का अपराध भी शायद इसी की एक कड़ी है। “समाज को क्या मुंह दिखाएंगे” इस चिन्ता के दबाव में अपना हाथ रक्तरंजित कर लेने से मुँह काला नहीं होता क्या? आज सभी लोग उन्हें थू-थू कर रहे हैं लेकिन इसी समाज का भय क्या उस दुष्कृत्य के लिए उत्प्रेरक नहीं रहा होगा? इस सारे घटनाक्रम में हमारे समाज का दोहरा मापदण्ड है जो इस तरह के कुकृत्य करने पर लोगों को मजबूर करते हैं। मुझे लगता है कि आरुषी हत्याकांण्ड में यह समाज भी उतना ही दोषी है जितना उसके माता-पिता।
(रचना)