Tuesday, June 8, 2010

क्या उसे मनुष्य और नारी के फर्क की समझ है…?

हाल ही में गिरिजेश जी ने यह कविता पोस्ट की थी। पढ़ने के बाद से तमाम बातें मन के भीतर गड्डमड्ड होती जा रही हैं-

न रो बेटी
माँ की डाँट पर न रो ।
वह चाहती है कि
वयस्क हो कर तुम
उस जैसी नारी नहीं
अपने पापा जैसी 'मनुष्य' बनो
(उसे मनुष्य और नारी के फर्क की समझ है) ।

बचपन में अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ जी की  यह मशहूर कविता पढ़ी थी तब मुझे मालूम भी न था इस कविता की गहराई में कितने रहस्य छुपे हैं, आज आये दिन मेरे मन में यही कविता डोलती रहती है।  

ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?

देव मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूँगी या कमल के फूल में ?

‘थ्री इडियट्स’ देखने के बाद मेरी नौ साल बेटी ने मुझसे कहा, “मम्मी मै हाउस-वाइफ बनना चाहती हूँ । तुम मुझे इसके लिए मना नही करना।”

उस समय मै उसकी बात को हँस कर टाल गयी…। लेकिन उसको क्या पता कि उसकी इस चाहत ने मुझे कितना दुख पहुँचाया। मन में ही फुसफुसा कर रह गयी कि वह तो ‘पढ़ो ना पढ़ो बन ही जाओगी’। हाउस-वाइफ़ भी कोई कैरियर ऑप्शन है? लेकिन उसे एक गृहिणी की छवि ही क्यों आकर्षक लगती है?

इस स्रुष्टि को जन्म देने वाली माँ क्या सचमुच उसका कार्य छोटा है? कितना आसान है अपने मन को समझाना, लेकिन उतना ही कठिन है बेटियों को समझाना। 

दिन में जाने कितनी बार मेरी बेटी बोलती है मम्मी, मै तुम्हारे जैसा बनना चाहती हूँ… लेकिन मै इस बात को सुनकर खुश नही होती। जाने क्यों उसका यह वाक्य मुझे दुख पहुँचाता है। मै उसको समझाने की कोशिश करती हूँ कि बेटा, मेरी तरह नही डैडी की तरह बनो। पढ़ लिखकर अच्छा कॅरियर बनाओ। स्वावलम्बी बनो।

लाख कोशिशो के बावजूद मै उसे बेटी कहकर नही पुकारती, मेरे मुँह से हमेशा उसके लिये बेटे का ही संबोधन निकलता है। जाने क्यों…?

इसमें उसका सम्मान है या अपमान?

मेरे अंदर कहीं न कहीं अपनी बेटी के लिए एक डर का भाव बना रहता है। पता नहीं क्या होगा इसका? एक माँ पुत्र का जन्म होने पर अपने आपको बेहतर महसूस करती है, पुत्री के जन्म की अपेक्षा। जैसा भी होगा अपने सामने तो रहेगा। उसका सुख और दुख अपनी आँखों के सामने तो घटित होगा। हम उसमें शरीक तो रहेंगे। उसके लिए जो बन पड़ेगा कर तो सकेंगे। उसपर हमारा अधिकार तो होगा। वह ‘पराया धन’ तो न होगा? लेकिन बेटी…?

सोचती हूँ कि क्या सचमुच उसकी सोच गलत है या मेरे मन का डर? आखिर मन डरता है तो किससे? उसके सामने एक ऐसी गृहिणी है जो सुखी है और सन्तुष्ट है। रोज ऑफ़िस जाने की भागमभाग नहीं है, कोई तनाव नहीं है। शायद इस आराम की जिन्दगी ने उसे आकर्षित किया हो…। लेकिन क्या सभी गृहिणियाँ सुखी और सन्तुष्ट हैं अपने जीवन से…? उसे क्या पता? उसने अभी दुनिया कहाँ देखी है?

कैसे समझाऊ उसे कि तुम्हें लेकर मैं कितना परेशान रहती हूँ। वह तो शायद उसी स्वाती कि बूँद की तरह है जिसको अपने बारे में पता नही कि उसका क्या हश्र होने वाला है। कितना कुछ अनदेखे भाग्य की मुठ्ठी में बन्द है…?

बेटी के जन्म के समय माँ का मन खुश कम चिंतित ज्यादा होता है,  इस समाज के दोहरे मापदंड देखते हुए…। माँ का मन कैसे चिंतित न हो अपनी बेटी के भविष्य की सुरक्षा को लेकर…?

(रचना त्रिपाठी)